जल तथा वायु के प्रभावाधीन मृदा की ऊपरी परत कटकर बह जाती है, इसे मृदा अपरदन कहते है. मृदा अपरदन मुख्यतः वनस्पतिहीन, ढालू, तथा कम ह्यूमस वाले इलाकों में ज्यादा होती है. यदि मिट्टी रूककर नष्ट हो जाये या उसमें पौष्टिक पदार्थों में कमी आ जाये तो वह मिट्टी खेती तथा वनस्पति के सदा लिए बेकार हो जाती है. यही कारण है कि मिट्टी को पुर्ननवीन न होने वाला संसाधन कहा गया है.
मृदा अपरदन के कारण
मृदा अपरदन दो प्रकार के होते है –
1. परतदार अपरदन (Lawyer or Sheet Erosion) –
2. नलीदार अपरदन (Gully Erosion)-
1. परतदार अपरदन (Lawyer or Sheet Erosion)- जब मृदा की ऊपरी परत जल बहाकर ले जाये या हवा उड़ाकर ले जाये तो उसे परतदार अपरदन कहते है. यह क्रिया उन क्षेत्रों में होती है, जहा भूमि सामान्य ढाल वाली एवं वर्षा बौछारों में हो तथा वनस्पति का अभाव हो. यह क्रिया राजस्थान, पंजाब एवं हरियाणा के दक्षिणी – पश्चिमी भागों में तथा हिमालय क्षेत्र में होती है. परतुं इससे एक विस्तृत भू – खंड की उपजाऊ मृदा नष्ट हो जाती है.
2. नालीदार अपरदन – तीव्र ढ़ाल तथा भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में तीव्र गति से बहता हुआ जल जब मिट्टी में कटाव करके नालीदार बना लेता है, तो इसे नालीदार अपरदन कहते है. कभी – कभी ये नालियां इतना विकराल रूप धारण कर लेती है कि मृदा सदा के लिए अयोग्य हो जाती है. भारत की चंबल नदी की घाटी में इस प्रकार का अपरदन देखने को मिलता है.
मृदा अपरदन के कारण (Causes of Soil Erosion)
मृदा अपरदन के भौतिक तथा सांस्कृतिक कारण हो सकते है. जिनमें से प्रमुख निम्नवत है-
क). नदी – नदी तीन प्रकार से मृदा अपरदन करती है –
(i). नदी कटाव द्वारा खड्ड बनाती है. चम्बल तथा यमुना के कछार प्रदेशों में इसकी उदाहरण मिलते है.
(ii). जब नदी अपना रास्ता बदलती है, आस पास के इलाके में मृदा अपरदन करती है. कोसी नदी ने कई बार रास्ता बदला है.
(iii). बाढ़ के समय नदी का पानी दूर – दूर तक फैल जाता है, तथा मृदा की परत को बहाकर ले जाता है.
(ख). मूसलाधार वर्षा – जब मूसलाधार वर्षा होती है, तो वर्षा का जल तीव्र गति से धरातल पर बहता है. जो मृदा अपरदन का कारण बन जाता है.
(ग). भूमि का ढाल – समतल भूमि में अपरदन कम होता है परन्तु ढाल वाली भूमि में अपरदन ज्यादा होता है.
(घ). वायु – शुष्क मरुस्थली वनस्पतिहीन प्रदेशों में वायु मृदा अपरदन का सबसे बड़ा कारण बनती है. वायु द्वारा मृदा अपरदन वायु की गति पर निर्भर करता है. तेज वायु चलने पर अधिक मृदा अपरदन होता है.
(ड़). वनस्पति का नाश – पेड़ – पौधें की जड़ें मिटटी की जकड़े रखती है, जिस कारण जल तथा वायु मिट्टी का आसानी से अपरदन नहीं कर पाती है. इसके अतिरिक्त पेड़ों के तने पानी के बहाव की गति को भी कम कर देती है. जिन क्षेत्रों में वनस्पति का अभाव होता है या नाश कर दी जाती है वहा मृदा अपरदन अधिक होता है.
(च). पशुचारण – वन पशुओं के लिए चारा प्रदान करती है, परन्तु आवश्यकता से अधिक पशुचारण से वनस्पति का नाश हो जाता है. जिससे मिटटी को हानि पहुचंती है. अधिक चराई से मिट्टी का आवरण नष्ट हो जाता है जिससे मिट्टी कमजोर हो जाती है इस स्थिति में मिट्टी पर जल और वायु का अधिक प्रभाव पड़ता है. इसके साथ ही पशु के पैरों से मिटटी ढीली हो जाती है. जिससे इस मिट्टी पर वायु तथा जल अधिक प्रभाव पड़ता है. आल्पस तथा हिमालय पर्वतमालाओं में पशुओं की अधिक मात्रा में चराने से बहुत ही बहुमूल्य मिट्टी का अपरदन हो चुका है. इसी प्रकार विश्व के विस्तृत घास के मैदानों में पशुचारण से मृदा को हानि पहुंची है.
(छ). कृषि – मृदा अपरदन में कृषि के ढंग बहुत हद तक निर्भर करता है. कृषि के अवैज्ञानिक ढंग से तीन प्रकार मृदा अपरदन को बढ़ावा देता है –
(i). यदि ढाल की ओर जुताई की जाय तो पानी सरलता से मिट्टी को बहाकर ले जाता है.
(ii). यदि खेत में बार – बार एक ही फसल बोई जाये और फसलों का चक्रण (Rotation of Crops) न किया जाए तो मिट्टी में उपस्थित खनिज तथा अन्य तत्वों का संतुलन बिगड़ जाता है, और अपरदन आसानी से हो जाता है.
(iii). स्थानांतरण कृषि से वनों का नाश होता है, और मिट्टी कट जाती है. अफ्रीका, एशिया, तथा दक्षिण अमेरिका में स्थानांतरण कृषि के कारण बड़ी मात्रा में मृदा अपरदन होता है.
(ज). मनुष्य तथा जीव – जंतु – मनुष्य अपनी आवश्यकता के लिए खेत जोतता है, नहरे तथा कुए खुदवाता है, भवन निर्माण करता है तथा अन्य प्रकार से मृदा अपरदन करता है. कई प्रकार के जिव -जंतु भी अपने निवास के लिए मिटटी में बिल बनाते है तथा मिट्टी को खोखला कर देते है. परिणाम स्वरूप वायु तथा जल द्वारा उस मिट्टी का आसानी से अपरदन हो जाता है.
मृदा अपरदन को रोकने के उपाय
पृथ्वी पर मानव जीवन को सुरक्षित रखने के लिए मृदा अपरदन का रोकना आवश्यक है. मृदा अपरदन का दर उसके नवीकरण से अधिक नहीं होनी चाहिए. उसकी उर्बरक शक्ति बनी रहनी चाहिए. उसके भौतिक गुण रासायनिक संगठन निरंतर फसलें उगाने अनुरूप बनी रहनी चाहिए. अतः जमे मृदा के संबंध में वो तरकीबें अपनानी चाहिए जिससे सदा उसकी उर्बरक शक्ति बनी रहे.
(i). बाँध बनाकर
(ii). वृक्षारोपण करके
(iii). पशुचारण पर प्रतिबंध लगाकर
(iv)कृषि प्रणाली में परिवर्तन करके-
- फसलों का चक्रीकरण
- स्थानांतरित कृषि पर नियंत्रण
- थोड़े समय में उगने वाले फसलों को पैदा करके